एक थाली, अनगिनत स्वाद और सदियों पुरानी कहानी
हिमाचल का पारंपरिक धाम सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि सदियों पुरानी परंपरा है जिसकी शुरुआत कांगड़ा के राजा ने आयुर्वेदिक सोच से की थी।

हिमाचली धाम की कहानी
हिमाचल प्रदेश की पहचान जितनी इसकी वादियों और मंदिरों से है, उतनी ही इसकी थाली से भी है। यहां का पारंपरिक व्यंजन धाम सिर्फ पेट भरने का ज़रिया नहीं, बल्कि संस्कृति, समानता और अपनत्व का प्रतीक है। शादी हो, त्योहार हो या फिर कोई बड़ा धार्मिक आयोजन — धाम के बिना हर जश्न अधूरा माना जाता है।
कब और कैसे हुई शुरुआत?
धाम की जड़ें लगभग हज़ार साल पुरानी हैं। इतिहासकार बताते हैं कि इसकी शुरुआत कांगड़ा घाटी से हुई थी। उस दौर में कांगड़ा के राजा जैमेहंद चंद आयुर्वेद और सात्विक भोजन के प्रबल समर्थक थे।
राजा ने आदेश दिया कि खास मौकों पर ऐसा भोजन परोसा जाए जो पूरी तरह शाकाहारी हो, पौष्टिक हो और सभी को एक साथ बैठाकर परोसा जाए। यही आदेश आगे चलकर धाम की परंपरा बन गया।
असली कारीगर — बोटि
धाम बनाने की जिम्मेदारी दी गई ब्राह्मण रसोइयों को, जिन्हें आज भी “बोटि” कहा जाता है।
ये बोटि तांबे के बड़े-बड़े बर्तनों में राजमा, मद्रा, खट्टा, कढ़ी, दालें और मीठे चावल जैसे व्यंजन पकाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हीं परिवारों में आगे बढ़ती रही है।
धाम क्यों है इतना खास?
धाम की असली खूबसूरती सिर्फ इसके स्वाद में नहीं, बल्कि इसके परोसने के तरीके में है।
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यह हमेशा पत्तल (हरे पत्तों की थाली) में परोसा जाता है।
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सभी लोग ज़मीन पर बैठकर एक ही कतार में खाते हैं।
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पहले मीठा, फिर दही वाले व्यंजन और आखिर में दालें परोसी जाती हैं।
इसका असली मकसद था — समाज में अमीर-गरीब का भेद मिटाना और सबको बराबरी का अहसास कराना।
आज का धाम
वक़्त के साथ धाम ने अलग-अलग रूप ले लिए हैं।
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कांगड़ा धाम में राजमा और मद्रा का स्वाद खास होता है।
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मंडी धाम में कढ़ी और खट्टा अलग पहचान रखते हैं।
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चंबा धाम अपने मीठे चावलों के लिए मशहूर है।
लेकिन चाहे धाम कहीं का भी हो, इसकी आत्मा वही रहती है — सादगी, स्वाद और सदियों पुराना जुड़ाव।
👉 यही वजह है कि धाम को लोग सिर्फ खाना नहीं, बल्कि हिमाचल की रूह मानते हैं।
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